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नज़र हैरत-ज़दा सी है क़दम बहके हुए से हैं | शाही शायरी
nazar hairat-zada si hai qadam bahke hue se hain

ग़ज़ल

नज़र हैरत-ज़दा सी है क़दम बहके हुए से हैं

महशर इनायती

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नज़र हैरत-ज़दा सी है क़दम बहके हुए से हैं
शबाब आया है उन पर और हम बहके हुए से हैं

अभी उन के करम की बात अपने हुस्न-ए-ज़न तक है
मगर उम्मीद-वारान-ए-करम बहके हुए से हैं

वफ़ा के सिलसिले में हो ही जाती है ग़लत-फ़हमी
वो बहकाए गए से हैं न हम बहके हुए से हैं

बड़े ज़ी-होश बनते थे मय-ए-इशरत के मतवाले
हुआ है जब से कुछ एहसास-ए-ग़म बहके हुए से हैं

उन्हें आईना-रुख़ कहिए उन्हीं के सामने जा कर
ये अंदाज़ा तो होता है कि हम बहके हुए से हैं

कहा करते थे हम अक्सर कि राह-ए-ज़िंदगी है क्या
जो अब देखे हैं उस के पेच-ओ-ख़म बहके हुए से हैं

मिरी दुनिया है ये अहल-ए-जुनूँ क्या होश वाले क्या
मिरी दुनिया में सब ही बेश-ओ-कम बहके हुए से हैं

ख़ुदा रक्खे चले हैं मंज़िल-ए-जानाँ को सर करने
वो देखो ना यहीं जिन के क़दम बहके हुए से हैं

हर इक ने मुझ को दीवाना ही ठहराया है ऐ 'महशर'
सभी क़िस्सा-निगारों के क़लम बहके हुए से हैं