नज़र बुझी तो करिश्मे भी रोज़-ओ-शब के गए
कि अब तलक नहीं आए हैं लोग जब के गए
करेगा कौन तिरी बेवफ़ाइयों का गिला
यही है रस्म-ए-ज़माना तो हम भी अब के गए
मगर किसी ने हमें हम-सफ़र नहीं जाना
ये और बात कि हम साथ साथ सब के गए
अब आए हो तो यहाँ क्या है देखने के लिए
ये शहर कब से है वीराँ वो लोग कब के गए
गिरफ़्ता-दिल थे मगर हौसला न हारा था
गिरफ़्ता-दिल में मगर हौसले भी अब के गए
तुम अपनी शम-ए-तमन्ना को रो रहे हो 'फ़राज़'
इन आँधियों में तो प्यारे चराग़ सब के गए
ग़ज़ल
नज़र बुझी तो करिश्मे भी रोज़-ओ-शब के गए
अहमद फ़राज़