नज़र आता है उठता जान से दिल से धुआँ मुझ को
दयार-ए-इश्क़ में रहना है इक बार-ए-गराँ मुझ को
सितम-पेशा मिरे अफ़्साना-ए-ग़म को नहीं सुनता
सो कहना है ब-अंदाज़-ए-हदीस-ए-दीगराँ मुझ को
सवाद-ए-शाम है जलते हुए ख़ेमों का मंज़र है
यहीं आवाज़ देती है कोई नोक-ए-सिनाँ मुझ को
मिरी मौज-ए-रवाँ की सब रवानी ख़त्म कर देगा
बना देगा वो हर उन्वान-ए-उम्र-ए-राएगाँ मुझ को
हमेशा दूर से वो इम्तिहान-ए-शौक़ करता है
कभी पहलू में भी बिठलाए यार-ए-मेहरबाँ मुझ को
भरम रखना है कुछ तो इज़्ज़त-ए-सादात का आख़िर
कि अब होने लगी हैं इश्क़ में रुस्वाइयाँ मुझ को
मता-ए-नक़्द-ए-जाँ ख़ुद राहज़न की नज़्र कर देता
अगर मैं जानना लौटेगा मीर-ए-कारवाँ मुझ को
सुना आशोब-ए-वहशत और फ़िशार-ए-ज़ात का नग़्मा
'नदीम' अब कारवान-ए-दर्द ले आया कहाँ मुझ को
ग़ज़ल
नज़र आता है उठता जान से दिल से धुआँ मुझ को
कामरान नदीम