नज़्अ' में गर मिरी बालीं पे तू आया होता
इस तरह अश्क मैं आँखों में न लाया होता
मेरे ख़ुर्शीद न होता ये मिरा रोज़-ए-सियाह
तू ने गर ज़ुल्फ़ में मुखड़ा न छुपाया होता
बाग़-ए-जन्नत में भी क्या ख़ूब गुज़रती मेरी
वाँ भी सर पर जो तिरी ज़ुल्फ़ का साया होता
नासेहा चाक-ए-गरेबाँ के सिलाने से हुसूल
चाक आँखों का मिरी तू ने सिलाया होता
फूल पड़ता न 'ख़लीक़' आतिश-ए-गुल से उस पर
आशियाँ हम ने टुक ऊँचा जो बनाया होता
ग़ज़ल
नज़्अ' में गर मिरी बालीं पे तू आया होता
मीर मुस्तहसन ख़लीक़