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नया शगूफ़ा इशारा-ए-यार पर खिला है | शाही शायरी
naya shagufa ishaara-e-yar par khila hai

ग़ज़ल

नया शगूफ़ा इशारा-ए-यार पर खिला है

सबा नक़वी

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नया शगूफ़ा इशारा-ए-यार पर खिला है
गुलाब अब के चमन की दीवार पर खिला है

ये कैसी अंगड़ाई ली है एहसास-ए-ज़िंदगी ने
मसीह का रंग रु-ए-बीमार पर खिला है

नफ़ी का जादू जगा रही हैं तिलिस्मी आँखें
वो हर्फ़-ए-मतलब फ़सील-ए-इज़हार पर खिला है

किताब-ए-रुख़ है हिजाब-ए-तक़्दीस-ए-हुस्न-ए-जानाँ
ये राज़ कैसा मज़ाक़-ए-दीदार पर खिला है

बहार-आगीं हयात-अफ़रोज़ फूल बन कर
लहू का छींटा क़बा-ए-ईसार पर खिला है

मुझे बनाया गया था ख़ामोशियों का पैकर
ये ग़ुंचा-ए-लब किसी के इसरार पर खिला है

'सबा' का ज़ौक़-ए-सुख़न निगार-ए-ग़ज़ल के हक़ में
वो काला तिल है जो गोरे रुख़्सार पर खिला है