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नया मज़मूँ किताब-ए-ज़ीस्त का हूँ | शाही शायरी
naya mazmun kitab-e-zist ka hun

ग़ज़ल

नया मज़मूँ किताब-ए-ज़ीस्त का हूँ

सलीम अहमद

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नया मज़मूँ किताब-ए-ज़ीस्त का हूँ
निहायत ग़ौर से सोचा गया हूँ

सुनें मुझ को तो मैं धड़कन हूँ दिल की
नहीं सुनते तो सहरा की सदा हूँ

मिरी जानिब कोई आए तो पूछूँ
निशान-ए-राह हूँ मंज़िल हूँ क्या हूँ

किसी को क्या बताऊँ कौन हूँ मैं
कि अपनी दास्ताँ भूला हुआ हूँ

ख़ुद अपनी दीद से अंधी हैं आँखें
ख़ुद अपनी गूँज से बहरा हुआ हूँ

मिरी सैराबियों में तिश्नगी है
कि मैं दरिया हूँ लेकिन रेत का हूँ

वो रन मुझ में पड़ा है ख़ैर ओ शर का
कि अपनी ज़ात में इक कर्बला हूँ

मिरा सीना है छलनी नय की सूरत
इन्हीं ज़ख़्मों से मैं नग़्मा-सरा हूँ

मुझे शबनम का आईना मिला है
इसी में गुल की सूरत देखता हूँ

मिरी मौजूदगी से बंदगी है
कि जब से गुम हुआ हूँ मैं ख़ुदा हूँ