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नौहागर से न किसी आईना-ख़ाने से हुई | शाही शायरी
nauhagar se na kisi aaina-KHane se hui

ग़ज़ल

नौहागर से न किसी आईना-ख़ाने से हुई

मुईन नजमी

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नौहागर से न किसी आईना-ख़ाने से हुई
मो'तबर ज़ात मिरी मेरे ज़माने से हुई

रंग क्या क्या न भरे हुस्न-ए-नज़र ने लेकिन
तेरी तस्वीर मुकम्मल तिरे आने से हुई

क़द्र-ओ-क़ीमत इन अँधेरों की न पूछो मुझ से
रौशनी घर में चराग़ों के जलाने से हुई

रास्ते का कोई पत्थर नहीं पहचान बना
जितनी तश्हीर हुई ख़ाक उड़ाने से हुई

मुतमइन मर के हुआ करता है जीने वाला
जब भी कम भूक हुई ठोकरें खाने से हुई

कतरनें जोड़ के तय्यार किया अपना लिबास
इज़्ज़त-ए-फ़क़्र फ़क़ीरी को छुपाने से हुई

जब बढ़ी हद से ख़ुशी भीग गई हैं आँखें
ग़म की तहरीक हमें जश्न मनाने से हुई

इतना ग़म प्यास का अपनी नहीं 'नजमी' ने किया
जितनी तस्कीन कोई आग बुझाने से हुई