नस्लें जो अँधेरे के महाज़ों पे लड़ी हैं
अब दिन के कटहरे में ख़ता-वार खड़ी हैं
बे-नाम सी आवाज़-ए-शगुफ़्त आई कहीं से
कुछ पतियाँ शायद शजर-ए-शब से झड़ी हैं
निकलें तो शिकस्तों के अँधेरे उबल आएँ
रहने दो जो किरनें मिरी आँखों में गड़ी हैं
आ डूब! उभरना है तुझे अगले नगर में
मंज़िल भी बुलाती है सलीबें भी खड़ी हैं
जब पास कभी जाएँ तो पट भेड़ लें खट से
क्या लड़कियाँ सपने के दरीचों में खड़ी हैं
क्या रात के आशोब में वो ख़ुद से लड़ा था
आईने के चेहरे पे ख़राशें सी पड़ी हैं
ख़ामोशियाँ उस साहिल-ए-आवाज़ से आगे
पाताल से गहरी हैं, समुंदर से बड़ी हैं
ग़ज़ल
नस्लें जो अँधेरे के महाज़ों पे लड़ी हैं
आफ़ताब इक़बाल शमीम