नशात-ए-ज़िंदगी में डूब कर आँसू निकलते हैं
सुना है अब तिरे ग़म के नए पहलू निकलते हैं
मोहब्बत का चमन है आओ सैर-ए-सरसरी कर लें
यहाँ से ले के सब टूटे हुए बाज़ू निकलते हैं
जुनूँ ले के चला है पा-ब-जौलाँ उस के कूचे से
लिए आग़ोश में हम निकहत-ए-गेसू निकलते हैं
तिरी बस्ती में दीवानों को रुस्वाई ही रास आई
ये अपना चाक दामन ले के अब हर सू निकलते हैं
वही आरिज़ वही काकुल वही काफ़िर-अदा आँखें
मगर हर लम्हा फिर भी कुछ नए जादू निकलते हैं
ग़ज़ल
नशात-ए-ज़िंदगी में डूब कर आँसू निकलते हैं
ख़लील-उर-रहमान आज़मी

