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नशा नशा सा हवाएँ रचाए फिरती हैं | शाही शायरी
nasha nasha sa hawaen rachae phirti hain

ग़ज़ल

नशा नशा सा हवाएँ रचाए फिरती हैं

सय्यद अारिफ़

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नशा नशा सा हवाएँ रचाए फिरती हैं
खिला खिला सा है मौसम तिरे सँवरने का

मैं अक्स अक्स छुपा हूँ हज़ार शीशों में
मुझे है शौक़ ये रंगों से अब गुज़रने का

कटेगी डोर न जब तक उलझती साँसों की
तमाशा ख़ूब रहेगा ये रूप उभरने का

ये रोज़ रोज़ सितारों का टूटना 'आरिफ़'
सबब बना है ज़मीं के शिगाफ़ भरने का