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नक़्श वो आँख में उतरा था कि जाता ही न था | शाही शायरी
naqsh wo aankh mein utra tha ki jata hi na tha

ग़ज़ल

नक़्श वो आँख में उतरा था कि जाता ही न था

ख़लील रामपुरी

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नक़्श वो आँख में उतरा था कि जाता ही न था
मैं ने इस धूप को ढलते कहीं देखा ही न था

रूह की प्यास बुझाए न बुझेगी किसी ढंग
मुझ को इस दश्त की पहनाई में उगना ही न था

पहले इस घर की हर इक खिड़की खुली रहती थी
यूँ मिला करते थे जैसे कोई पर्दा ही न था

अब जो इंसान हवाओं में उड़ा फिरता है
ये कभी पेड़ के साए से निकलता ही न था

दौड़ पड़ता था जहाँ रेत से जलते थे क़दम
साथ दरिया था मगर डर से उतरता ही न था

ऐसी सर्दी में वहाँ जा के कहाँ सुसताए
पार नद्दी के कोई धूप का ख़ेमा ही न था

रात का पेड़ उगा था कि कोई साया था
क्या कहूँ हाथ लगा कर उसे देखा ही न था

कितने आज़ाद थे बरसात के ख़ुद-रौ नाले
अपनी दुनिया थी कोई पूछने वाला ही न था

हादिसा ऐसा भी पेश आएगा मर जाऊँगा
ख़्वाब ऐसा तो कभी उम्र में देखा ही न था

शाइरी ने मुझे इंसान बनाया है 'ख़लील'
मैं वो शीशा था कि दुनिया से चमकता ही न था