नक़्श-ए-तस्वीर न वो संग का पैकर कोई
उस को जब देखो बदल जाता है मंज़र कोई
कशिश-ए-हर्फ़-ए-तबस्सुम है लबों में रू-पोश
गोशा-ए-चशम से हँसता है सितमगर कोई
जुर्रा-ए-आख़िर-ए-मय है कि गिराँ-ख़्वाबी-ए-शब
चाँद सा डूब रहा है मिरे अंदर कोई
चढ़ते दरिया सा वो पैकर वो घटा से गेसू
रास्ता देख रहा है मिरा मंज़र कोई
सदफ़-ए-बहर से निकली है अभी लैला-ए-शब
अपनी मुट्ठी में छुपाए हुए गौहर कोई
खो गया फिर कहीं अफ़्लाक की पहनाई में
देर तक चमका किया टूटा हुआ पर कोई
सफ़-ए-आदा है मिरे सामने और पुश्त पे हैं
न फ़रिश्ते न अबाबीलों का लश्कर कोई
टूट कर गिरती है ऊपर मिरे चट्टान कि है
बैअत-ए-संग मिरे दस्त-ए-हुनर पर कोई
रात भर ताक़त-ए-परवाज़ उगाती है उन्हें
काट देता है सहर-दम मिरे शहपर कोई
मेरे क़ातिल ने बढ़ा दी मिरे सच की तौक़ीर
इस सिले के लिए मौज़ूँ था पयम्बर कोई
आज इस क़र्या-ए-वीराँ में ये आहट कैसी
दिल के अंदर है कोई और न बाहर कोई
किसी झाड़ी से किरन छूटी है सूरज की कि 'ज़ेब'
चमक उट्ठा है किसी हाथ में ख़ंजर कोई
ग़ज़ल
नक़्श-ए-तस्वीर न वो संग का पैकर कोई
ज़ेब ग़ौरी