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नक़्श दौर-ए-माज़ी के ज़ेहन में उभरते हैं | शाही शायरी
naqsh daur-e-mazi ke zehn mein ubharte hain

ग़ज़ल

नक़्श दौर-ए-माज़ी के ज़ेहन में उभरते हैं

मोज फ़तेहगढ़ी

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नक़्श दौर-ए-माज़ी के ज़ेहन में उभरते हैं
भूली-बिसरी राहों से जब कभी गुज़रते हैं

अंग अंग हँसता है ज़ाविए निखरते हैं
जब वो मुस्कुराते हैं जब वो बात करते हैं

हम उन्हीं पे जान-ओ-दिल भी निसार करते हैं
अपना हाल-ए-दिल जिन से अर्ज़ करते डरते हैं

इस क़दर न होता ज़ाँ आरज़ी बुलंदी पर
उड़ने वाले ताइर के बाल-ओ-पर कतरते हैं

नश्शा-ए-जवानी में उड़ते हैं हवाओं पर
आसमान से नीचे कब वो पाँव धरते हैं

मेहर-ओ-मह की गर्दिश में ढूँढते हैं क़िस्मत को
अपनी अपनी करती पर कम निगाह करते हैं

जौर-ओ-जब्र का उन का सिलसिला नहीं टूटा
गो वफ़ाओं के हम ने सब उसूल बरते हैं

कुछ सुकून देती हैं बदलियाँ उमीदों की
यास-ओ-हुज़्न के तूफ़ाँ सर से जब गुज़रते हैं

'मौज' बहर-ए-उल्फ़त में लाज़मी हैं ग़व्वासी
ग़र्क़ होने वाले ही पार भी उतरते हैं