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नक़ीब-ए-बख़्त सारे सो चुके हैं | शाही शायरी
naqib-e-baKHt sare so chuke hain

ग़ज़ल

नक़ीब-ए-बख़्त सारे सो चुके हैं

वक़ार सहर

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नक़ीब-ए-बख़्त सारे सो चुके हैं
बिल-आख़िर बे-सहारे सो चुके हैं

किसी से ख़्वाब में मिलना है शायद
कि वो गेसू सँवारे सो चुके हैं

मुझे भी ख़ुद से वहशत हो रही है
सभी जज़्बे तुम्हारे सो चुके हैं

कई मायूस माही-गीर आख़िर
समुंदर के किनारे सो चुके हैं

शब-ए-तन्हाई जूँ-तूँ कट रही है
ग़म-ए-फ़ुर्क़त के मारे सो चुके हैं

मुक़फ़्फ़ल फिर से कर लो कोठरी को
'सहर' सो जाओ तारे सो चुके हैं