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नक़ाब-ए-शब में छुप कर किस की याद आई समझते हैं | शाही शायरी
naqab-e-shab mein chhup kar kis ki yaad aai samajhte hain

ग़ज़ल

नक़ाब-ए-शब में छुप कर किस की याद आई समझते हैं

रविश सिद्दीक़ी

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नक़ाब-ए-शब में छुप कर किस की याद आई समझते हैं
इशारे हम तिरे ऐ शम-ए-तन्हाई समझते हैं

न समझें बात वाइज़ की हम इतने भी नहीं नादाँ
कहाँ तक है बिसात-ए-अक़्ल-ओ-दानाई समझते हैं

तवज्जोह फिर तवज्जोह है मगर हम तेरे दीवाने
तग़ाफ़ुल को भी इक अंदाज़-ए-रानाई समझते हैं

हमें ना-आश्ना समझो न रस्म-ओ-राह-ए-मंज़िल से
कहाँ ले जा रहा है ज़ौक़-ए-रुस्वाई समझते हैं

हम ऐसे सर-फिरों को काम क्या है मर्ग ओ हस्ती से
ये सब है शोख़ी-ए-नाज़-ए-मसीहाई समझते हैं

हम ऐ ख़ल्वत-नशीं आख़िर में तेरे देखने वाले
ये क्यूँ है एहतिमाम-ए-महफ़िल-आराई समझते हैं

रिदा-ए-पाकी-ओ-तक़्वा की अज़्मत में तो क्या शक है
'रविश' हम तो ग़ुबार-ए-कू-ए-रुस्वाई समझते हैं