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नक़ाब-ए-रुख़ उठा कर हुस्न जब जल्वा-फ़िगन होगा | शाही शायरी
naqab-e-ruKH uTha kar husn jab jalwa-figan hoga

ग़ज़ल

नक़ाब-ए-रुख़ उठा कर हुस्न जब जल्वा-फ़िगन होगा

रिफ़अत सेठी

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नक़ाब-ए-रुख़ उठा कर हुस्न जब जल्वा-फ़िगन होगा
न पूछो क्या क़यामत-ख़ेज़ रंग-ए-अंजुमन होगा

न गुल हँसते न कलियाँ मुस्कुरातीं फिर बहाराँ में
ख़बर होती अगर उन को ख़िज़ाँ-ख़ुर्दा चमन होगा

ग़रीक़-ए-बहर होना आदमी के हक़ में बेहतर है
न मम्नून-ए-ज़मीं होगा न मुहताज-ए-कफ़न होगा

जफ़ा ढाते रहेंगे बस यूँही दिन-रात दर-पर्दा
समझ बैठे हैं वो बदनाम तो चर्ख़-ए-कुहन होगा

सफ़र में भी मुसाफ़िर के बहलने को ब-ख़ामोशी
कभी अहबाब का क़िस्सा कभी ज़िक्र-ए-वतन होगा

अभी तो पत्ते पत्ते पर बहारें टूटी पड़तीं हैं
ख़ुदा जाने हमारे बअ'द क्या रंग-ए-चमन होगा

अजल जब छीन लेगी आदमी से ताब-ए-गोयाई
सुकूत-ए-देर-पा होंटों पे फिर जा-ए-सुख़न होगा

किसे मालूम था यूँ दिल की हिम्मत साथ छोड़ेगी
फ़ना ख़ुद अपने तेशे से बिल-आख़िर कोहकन होगा

ख़ुदा के घर भी यूँ तो बे-तलब जाता नहीं कोई
बुलाओगे तो हाँ 'रिफ़अत' शरीक-ए-अंजुमन होगा