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नक़ाब-ए-बज़्म-ए-तसव्वुर उठाई जाती है | शाही शायरी
naqab-e-bazm-e-tasawwur uThai jati hai

ग़ज़ल

नक़ाब-ए-बज़्म-ए-तसव्वुर उठाई जाती है

लक्ष्मी नारायण फ़ारिग़

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नक़ाब-ए-बज़्म-ए-तसव्वुर उठाई जाती है
शिकस्त-ख़ुर्दों की हिम्मत बढ़ाई जाती है

भटकने लगता है राह-ए-वफ़ा से जब आलम
हदीस-ए-इश्क़ हमारी सुनाई जाती है

मता-ए-होश-ओ-ख़िरद बे-बहा सही लेकिन
दर-ए-हबीब पे ये भी लुटाई जाती है

नज़र से होती है लुत्फ़-ओ-करम की बारिश भी
नज़र से बर्क़-ए-तपाँ भी गिराई जाती है

वुफ़ूर-ए-शौक़ की देखो तो मस्लहत-कोशी
जुनूँ की बात ख़िरद से छुपाई जाती है

किस ए'तिमाद से आग़ाज़-ए-दौर-ए-उल्फ़त में
ख़याल-ओ-ख़्वाब की दुनिया बसाई जाती है

फ़ज़ा-ए-रूह पे तारीकियाँ मुसल्लत हैं
हरम में शम-ए-अक़ीदत जलाई जाती है

दिखा दिखा के मआल-ए-जुनूँ की फ़ित्नागरी
बशर को रस्म-ए-मुरव्वत सिखाई जाती है

मता-ए-इश्क़-ओ-मोहब्बत निगाह-ए-आलम से
किस एहतियात से 'फ़ारिग़' छुपाई जाती है