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नंग-ए-एहसास है अंदोह-ए-ग़रीब-उल-वतनी | शाही शायरी
nang-e-ehsas hai andoh-e-gharib-ul-watani

ग़ज़ल

नंग-ए-एहसास है अंदोह-ए-ग़रीब-उल-वतनी

सुलैमान आसिफ़

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नंग-ए-एहसास है अंदोह-ए-ग़रीब-उल-वतनी
कम नहीं गर्द-ए-रह-ए-शौक़ की साया-फ़गनी

आदमी होता है ख़ुद अपने ही तेशे का शिकार
कोई आसान नहीं मश्ग़ला-ए-कोह-कनी

परतव-ए-रुख़ से तिरे किस को नहीं हैरानी
अश्क-आईना हुई है तिरी सीमीं-बदनी

सुंबुलिस्ताँ हैं तिरे गेसू-ए-पुर-ख़म के असीर
हुस्न-ए-क़ामत है तिरा नाज़िश-ए-सर्व-ए-चमनी

अपने जामे में समाती नहीं फूलों की बहार
दिल में काँटों के खटकती है ये गुल-पैरहनी

देख मेरी निगह-ए-शौक़ की मंज़र-ताबी
महव-ए-हैरत है तिरे हुस्न की आईना-तनी

क्या कोई गोश-बर-आवाज़ हुआ है 'आसिफ़'
लब-कुशाई पे है मजबूर मिरी कम-सुख़नी