नमी आँखों की बादा हो गई है
पुरानी याद ताज़ा हो गई है
है मुझ को ए'तिराफ़-ए-जुर्म-ए-उल्फ़त
ख़ता ये बे-इरादा हो गई है
चले आओ हुजूम-ए-शौक़ ले कर
रह-ए-दिल अब कुशादा हो गई है
गुमाँ होने लगा है हर यक़ीं पर
तिरी हर बात वअ'दा हो गई है
मिले हो जब भी तन्हाई में 'दरवेश'
कोई तक़रीब-ए-सादा हो गई है
ग़ज़ल
नमी आँखों की बादा हो गई है
तारिक़ राशीद दरवेश