नख़वत-ए-हुस्न पसंद आई है दीवाने को
सर-कशी शम्अ' की मंज़ूर है परवाने को
देखिए कौन सी जा यार का मिलता है पता
कोई का'बे को चला है कोई बुत-ख़ाने को
तेरी फ़ुर्क़त में तसव्वुर है ये बेदर्दी का
ख़्वाब हम जानते हैं नींद के आ जाने को
काम आ जाती है हम-बज़्मी भी रौशन दिल की
शम्अ' हम-रंग बना लेती है परवाने को
गुल पे बुलबुल था कहीं शम्अ' पे परवाना था
हम ने हर रंग में देखा तिरे दीवाने को
वा-शुद-ए-दिल न हुई ग़ुंचा-ए-ख़ातिर न खिला
कौन से बाग़ में आए थे हवा खाने को
मैं ने जब वादी-ए-ग़ुर्बत में क़दम रक्खा था
दूर तक याद-ए-वतन आई थी समझाने को
ग़ज़ल
नख़वत-ए-हुस्न पसंद आई है दीवाने को
वहीद इलाहाबादी