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नख़्ल-ए-उमीद-ओ-आरज़ू बे-बर्ग-ओ-बार है | शाही शायरी
naKHl-e-umid-o-arzu be-barg-o-bar hai

ग़ज़ल

नख़्ल-ए-उमीद-ओ-आरज़ू बे-बर्ग-ओ-बार है

राज कुमार सूरी नदीम

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नख़्ल-ए-उमीद-ओ-आरज़ू बे-बर्ग-ओ-बार है
नाकामी-ए-हयात पे दिल शर्मसार है

दामान-ए-सब्र हिज्र में गो तार-तार है
वा'दे का उन के फिर भी हमें ए'तिबार है

फ़िक्र-ए-जहाँ मुझे न ग़म-ए-रोज़गार है
फिर भी न जाने किस लिए दिल बे-क़रार है

शाम-ए-फ़िराक़ शिद्दत-ए-ग़म बे-शुमार है
मुश्ताक़-ए-दीद आँख भी अब अश्क-बार है

गुलशन में उन को देख के महव-ए-ख़िराम-ए-नाज़
समझी निगाह-ए-शौक़ कि रक़्स-ए-बहार है

यूँ तो हज़ार बार उसे आज़मा चुके
फिर ए'तिबार-ए-वादा-ए-ग़फ़लत-शिआर है

मुद्दत हुई है क़त-ए-तअल्लुक़ किए 'नदीम'
उस जान-ए-इंतिज़ार का फिर इंतिज़ार है