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नई तहज़ीब से बच्चों को बचाऊँ कैसे | शाही शायरी
nai tahzib se bachchon ko bachaun kaise

ग़ज़ल

नई तहज़ीब से बच्चों को बचाऊँ कैसे

माहिर अब्दुल हई

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नई तहज़ीब से बच्चों को बचाऊँ कैसे
ख़ुद तो बिगड़ा हूँ ज़माने को बनाऊँ कैसे

वो न देखे मेरी जानिब तो नहीं उस की ख़ता
मैं अँधेरे में पड़ा हूँ नज़र आऊँ कैसे

मेरे आँगन में तो आई ही नहीं मौज-ए-बहार
कोई फूलों से भरा गीत सुनाऊँ कैसे

चाहता तो हूँ कि देखूँ पस-ए-पर्दा क्या है
दस्तरस जिस पे न हो उस को उठाऊँ कैसे

पर निकलते ही कोई उस को कतर देता है
अपने बच्चों को फ़ज़ाओं में उड़ाऊँ कैसे

वक़्त महदूद दिया काम दिया ला-महदूद
ज़िंदगी बोल तिरा क़र्ज़ चुकाऊँ कैसे

जिस्म पर चोट लगी हो तो दिखाऊँ 'माहिर'
दिल पे जो चोट लगी है वो दिखाऊँ कैसे