नई तहज़ीब से बच्चों को बचाऊँ कैसे
ख़ुद तो बिगड़ा हूँ ज़माने को बनाऊँ कैसे
वो न देखे मेरी जानिब तो नहीं उस की ख़ता
मैं अँधेरे में पड़ा हूँ नज़र आऊँ कैसे
मेरे आँगन में तो आई ही नहीं मौज-ए-बहार
कोई फूलों से भरा गीत सुनाऊँ कैसे
चाहता तो हूँ कि देखूँ पस-ए-पर्दा क्या है
दस्तरस जिस पे न हो उस को उठाऊँ कैसे
पर निकलते ही कोई उस को कतर देता है
अपने बच्चों को फ़ज़ाओं में उड़ाऊँ कैसे
वक़्त महदूद दिया काम दिया ला-महदूद
ज़िंदगी बोल तिरा क़र्ज़ चुकाऊँ कैसे
जिस्म पर चोट लगी हो तो दिखाऊँ 'माहिर'
दिल पे जो चोट लगी है वो दिखाऊँ कैसे
ग़ज़ल
नई तहज़ीब से बच्चों को बचाऊँ कैसे
माहिर अब्दुल हई

