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नई सहर है ये लोगो नया सवेरा है | शाही शायरी
nai sahar hai ye logo naya sawera hai

ग़ज़ल

नई सहर है ये लोगो नया सवेरा है

वफ़ा मलिकपुरी

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नई सहर है ये लोगो नया सवेरा है
तुलूअ' हो चुका सूरज मगर अँधेरा है

ख़ुदा ही जाने ये दिल कब ख़ुदा का घर होगा
अभी तो इस में बुतान-ए-हवस का डेरा है

अभी न दे मुझे आवाज़ ऐ ग़म-ए-जानाँ
अभी तो शहर-ए-वफ़ा में बड़ा अँधेरा है

न साएबान न आँगन न छत न रौशन-दान
और इस पे सब से लड़ाई कि घर ये मेरा है

ये दार-ओ-गीर की दुनिया में कहना मुश्किल है
कि कौन इस में लुटा कौन याँ लुटेरा है

ये सारे झगड़े हैं बस एक दो पहर के लिए
कि नूर-ए-मेहर न मेरा है और न तेरा है

वफ़ा निसार हो उस की वफ़ा-शनासी पर
हज़ार गर्दिशों के बा'द भी जो मेरा है