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नई हवा में कोई रंग-ए-काएनात में गुम | शाही शायरी
nai hawa mein koi rang-e-kaenat mein gum

ग़ज़ल

नई हवा में कोई रंग-ए-काएनात में गुम

अबरार किरतपुरी

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नई हवा में कोई रंग-ए-काएनात में गुम
हुआ है सारा ज़माना तसन्नुआत में गुम

गले का हार कहीं बन न जाए महरूमी
न होना भूल के हुस्न-ए-तकल्लुफ़ात में गुम

किसी भी शख़्स पे उस को तरस नहीं आता
अमीर-ए-शहर हुआ है ये किन सिफ़ात में गुम

हर एक गुल को मिरी दस्तरस से दूर किया
मिरी नज़र है अदू की नवाज़िशात में गुम

बशर बशर ने मुक़फ़्फ़ल किया है बाब-ए-अमल
हर एक ज़ेहन हुआ कैसी नफ़्सियात में गुम

कहीं भी राह-नुमा अब नज़र नहीं आता
मैं क्या बताऊँ कि हूँ कौन सी जिहात में गुम

हुसूल-ए-इल्म मिरा मुद्दआ है ऐ 'अबरार'
इसी लिए हूँ किताबों में और लुग़ात में गुम