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नहीं ज़माने में हासिल कहीं ठिकाना मुझे | शाही शायरी
nahin zamane mein hasil kahin Thikana mujhe

ग़ज़ल

नहीं ज़माने में हासिल कहीं ठिकाना मुझे

शौक़ जालंधरी

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नहीं ज़माने में हासिल कहीं ठिकाना मुझे
कहाँ कहाँ लिए फिरता है आब-ओ-दाना मुझे

वो देखते हैं ब-अंदाज़-ए-मुजरिमाना मुझे
कि जिन से प्यार है ऐ दोस्त वालिहाना मुझे

झुलसती धूप में ऐ काश ऐसा वक़्त आए
नसीब हो तिरी पलकों का आशियाना मुझे

कभी रहा न ग़रीबों से वास्ता जिस को
वो देगा क्या मिरी मेहनत का मेहनताना मुझे

बला से जुर्म हो इंसाफ़ की निगाहों में
तुम्हारी बात तो लगती है मुंसिफ़ाना मुझे

तलाश-ए-रिज़्क़ में आए न जिस में कोताही
इलाही दे वही परवाज़-ए-ताइराना मुझे

मैं सादा-लौही पे अपनी हूँ मुतमइन यारो
ख़ुदा के वास्ते समझे न कोई दाना मुझे

मिरी हयात की ये भी अजीब उलझन है
भुलाना तुझ को कभी भी लगा रवा न मुझे

किताब दी थी सदाक़त की माँ ने हाथों में
सफ़र पे पहले-पहल जब किया रवाना मुझे

ख़ुदा का शुक्र है ऐ 'शौक़' अब भी ज़िंदा हूँ
सता रहा है ज़माने से ये ज़माना मुझे