नहीं नाम-ओ-निशाँ साए का लेकिन यार बैठे हैं
उगे शायद ज़मीं से ख़ुद-ब-ख़ुद दीवार बैठे हैं
सवार-ए-कश्ती-ए-अमवाज-ए-दिल हैं और ग़ाफ़िल हैं
समझते हैं कि हम दरिया-ए-ग़म के पार बैठे हैं
उजाड़ ऐसी न थी दुनिया अभी कल तक ये आलम था
यहाँ दो-चार बैठे हैं वहाँ दो-चार बैठे हैं
फिर आती है इसी सहरा से आवाज़-ए-जरस मुझ को
जहाँ मजनूँ से दीवाने भी हिम्मत हार बैठे हैं
समझते हो जिन्हें तुम संग-ए-मील ऐ क़ाफ़िले वालो
सर-ए-रह ख़स्तगान-ए-हसरत-रफ़्तार बैठे हैं
ये जितने मसअले हैं मश्ग़ले हैं सब फ़राग़त के
न तुम बे-कार बैठे हो न हम बे-कार बैठे हैं
तुम्हें 'अंजुम' कोई उस से तवक़्क़ो हो तो हो वर्ना
यहाँ तो आदमी की शक्ल से बे-ज़ार बैठे हैं
ग़ज़ल
नहीं नाम-ओ-निशाँ साए का लेकिन यार बैठे हैं
अंजुम रूमानी