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नहीं नाम-ओ-निशाँ साए का लेकिन यार बैठे हैं | शाही शायरी
nahin nam-o-nishan sae ka lekin yar baiThe hain

ग़ज़ल

नहीं नाम-ओ-निशाँ साए का लेकिन यार बैठे हैं

अंजुम रूमानी

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नहीं नाम-ओ-निशाँ साए का लेकिन यार बैठे हैं
उगे शायद ज़मीं से ख़ुद-ब-ख़ुद दीवार बैठे हैं

सवार-ए-कश्ती-ए-अमवाज-ए-दिल हैं और ग़ाफ़िल हैं
समझते हैं कि हम दरिया-ए-ग़म के पार बैठे हैं

उजाड़ ऐसी न थी दुनिया अभी कल तक ये आलम था
यहाँ दो-चार बैठे हैं वहाँ दो-चार बैठे हैं

फिर आती है इसी सहरा से आवाज़-ए-जरस मुझ को
जहाँ मजनूँ से दीवाने भी हिम्मत हार बैठे हैं

समझते हो जिन्हें तुम संग-ए-मील ऐ क़ाफ़िले वालो
सर-ए-रह ख़स्तगान-ए-हसरत-रफ़्तार बैठे हैं

ये जितने मसअले हैं मश्ग़ले हैं सब फ़राग़त के
न तुम बे-कार बैठे हो न हम बे-कार बैठे हैं

तुम्हें 'अंजुम' कोई उस से तवक़्क़ो हो तो हो वर्ना
यहाँ तो आदमी की शक्ल से बे-ज़ार बैठे हैं