नहीं मिलते वो अब तो क्या बात है
यहाँ ख़ुद से भी कब मुलाक़ात हे
तिरे ध्यान के सब उजाले गए
बस अब हम हैं और दुख भरी रात है
हमारी तरफ़ भी कभी इक निगाह
हमें भी बहुत नश्शा-ए-ज़ात है
सुलगता हुआ दिन जो कट भी गया
तो फिर आँच देती हुई रात है
शिकायत किसी से तो किया थी मगर
गिला एक रस्म-ए-ख़राबात है
नया दुख तो मिलता है किस को यहाँ
मगर ग़म की हर शब नई रात है
हर इक शाम ताज़ा उमीद-ए-विसाल
हर इक रोज़ रोज़-ए-मुकाफ़ात है
ग़ज़ल
नहीं मिलते वो अब तो क्या बात है
अहमद हमदानी