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नहीं कि अपनी तबाही का 'राज़' को ग़म है | शाही शायरी
nahin ki apni tabahi ka raaz ko gham hai

ग़ज़ल

नहीं कि अपनी तबाही का 'राज़' को ग़म है

राज़ यज़दानी

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नहीं कि अपनी तबाही का 'राज़' को ग़म है
तुम्हारी ज़हमत-ए-अहद-ए-करम का मातम है

निसार-ए-जल्वा दिल-ओ-दीं ज़रा नक़ाब उठा
वो एक लम्हा सही एक लम्हा क्या कम है

किसी ने चाक किया है गुलों का पैराहन
शुआ-ए-मेहर तुझे ए'तिमाद-ए-शबनम है

क़ज़ा का ख़ौफ़ है अच्छा मगर इस आफ़त में
ये मो'जिज़ा भी कि हम जी रहे हैं क्या कम है

वो रक़्स-ए-शो'ला वो सोज़-ओ-गुदाज़-ए-परवाना
जिधर चराग़ हैं रौशन अजीब आलम है

हुदूद-ए-दैर-ओ-हरम से गुज़र चुका शायद
कि अब इजाज़त-ए-सज्दा है और पैहम है

शमीम-ए-ग़ुन्चा-ओ-गुल रंग-ए-लाला नग़्मा-ए-मौज
तिरे जमाल की जो शरह है वो मुबहम है

लताफ़तों से ज़माना भरा पड़ा है मगर
मिरी नज़र की ज़रूरत से किस क़दर कम है

फ़रेब दिल ने मोहब्बत में खाए हैं क्या क्या
हर इक फ़रेब पर अब तक यक़ीन-ए-मोहकम है

मिरी निगाह कहाँ तक जवाब दे आख़िर
तिरी निगाह का हर हर सवाल मुबहम है

अभी तो अपनी निगाहों के इल्तिफ़ात को रोक
अभी तो मंज़र-ए-हस्ती तमाम मुबहम है