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नहीं जाती अगर ये आसमाँ तक | शाही शायरी
nahin jati agar ye aasman tak

ग़ज़ल

नहीं जाती अगर ये आसमाँ तक

इसहाक़ विरदग

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नहीं जाती अगर ये आसमाँ तक
तो फिर इस चीख़ की हद है कहाँ तक

चलो पानी से वो शो'ला निकालें
उठाए जो ज़मीं को आसमाँ तक

अब अगले मोड़ पर पाताल होगा
यक़ीं से आ गया हूँ मैं गुमाँ तक

ज़माने को समझ पाया नहीं हूँ
मैं समझाता रहूँ ख़ुद को कहाँ तक

अजब इक खेल खेला जा रहा है
न था जिस का हमें कोई गुमाँ तक

बहुत ही ख़ूबसूरत रास्ता है
जो सीधा जा रहा है राएगाँ तक

ज़मीं के बाब में कुछ मशवरे हैं
ज़रा मैं जा रहा हूँ आसमाँ तक