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नहीं हो तुम तो हर शय अजनबी मा'लूम होती है | शाही शायरी
nahin ho tum to har shai ajnabi malum hoti hai

ग़ज़ल

नहीं हो तुम तो हर शय अजनबी मा'लूम होती है

जलील इलाहाबादी

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नहीं हो तुम तो हर शय अजनबी मा'लूम होती है
बहार-ए-ज़िंदगी काँटों भरी मा'लूम होती है

चराग़-ए-ज़ीस्त की लौ थरथराती है चले आओ
मुझे हर साँस अपनी आख़िरी मा'लूम होती है

बताऊँ क्या तुम्हारी चश्म-ए-उल्फ़त की असर-रेज़ी
रग-ओ-पै में उतरती बर्क़ सी मा'लूम होती है

सितम मुझ पर उसी अंदाज़ से पैहम किए जाओ
तुम्हारी दुश्मनी भी दोस्ती मा'लूम होती है

जहाँ देखा किसी ने भी हमें चश्म-ए-मोहब्बत से
पलट कर ज़िंदगी आई हुई मा'लूम होती है

तवाफ़-ए-दैर-ओ-का'बा से यही हासिल हुआ मुझ को
मोहब्बत ही सरापा बंदगी मा'लूम होती है

'जलील' इक शम-ए-हसरत बुझ गई तो ग़म नहीं इस का
अभी दाग़-ए-जिगर में रौशनी मा'लूम होती है