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नहीं देखता दिन जिसे चश्म-ए-शब देखती है | शाही शायरी
nahin dekhta din jise chashm-e-shab dekhti hai

ग़ज़ल

नहीं देखता दिन जिसे चश्म-ए-शब देखती है

फ़रहत एहसास

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नहीं देखता दिन जिसे चश्म-ए-शब देखती है
अंधेरा भी इक दूसरे रंग की रौशनी है

पुराने अंधेरों को आँखों में महफ़ूज़ रखना
नई रौशनी कुछ यक़ीनी नहीं रौशनी है

चली जाए बाज़ार में रौशनी जब अचानक
चमकने लगे जो बस इक दम वही आदमी है

चिमट जाए जो जिस्म से मौत से लम्हा पहले
जिसे रोकना ग़ैर-मुमकिन हो वो ज़िंदगी है

उसी की बदौलत तो घर अपना घर लग रहा है
जो चीज़ों की भर-मार में इक ज़रा सी कमी है

फटे-हाल ऐसा यहाँ कोई और अब कहाँ है
ज़रा ग़ौर से देखना फ़रहत-एहसास ही है