नहीं आसमाँ तिरी चाल में नहीं आऊँगा
मैं पलट के अब किसी हाल में नहीं आऊँगा
मिरी इब्तिदा मिरी इंतिहा कहीं और है
मैं शुमारा-ए-माह-ओ-साल में नहीं आऊँगा
अभी इक अज़ाब से है सफ़र इक अज़ाब तक
अभी रंग-ए-शाम-ए-ज़वाल में नहीं आऊँगा
वही हालतें वही सूरतें हैं निगाह में
किसी और सूरत-ए-हाल में नहीं आऊँगा
मुझे क़ैद करने की ज़हमतें न उठाइए
नहीं आऊँगा किसी जाल में नहीं आऊँगा
मैं ख़याल-ओ-ख़्वाब हिसार से भी निकल चुका
सो किसी के ख़्वाब-ओ-ख़याल में नहीं आऊँगा
न हो बद-गुमाँ मिरी दाद-ख़्वाही-ए-हिज्र से
मिरी जाँ मैं शौक़-ए-विसाल में नहीं आऊँगा
ग़ज़ल
नहीं आसमाँ तिरी चाल में नहीं आऊँगा
अहमद महफ़ूज़