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नग़्मगी से सुकूत बेहतर था | शाही शायरी
naghmagi se sukut behtar tha

ग़ज़ल

नग़्मगी से सुकूत बेहतर था

शरीफ़ मुनव्वर

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नग़्मगी से सुकूत बेहतर था
मैं था और इक किराए का घर था

कोई मुझ सा न दूसरा आया
यूँ तो हर शख़्स मुझ से बेहतर था

हर-तरफ़ क़हत-ए-आब था लेकिन
एक तूफ़ान मेरे अंदर था

मैं बना था ख़लीफ़ा-ए-दौराँ
यूँ कि काँटों का ताज सर पर था

मैं मुसलसल वहाँ चला कि जहाँ
दो-क़दम का सफ़र भी दूभर था

घिर गया था मैं इक जज़ीरे में
और चारों तरफ़ समुंदर था

एक इक मौज मुझ से टकराई
जुर्म ये था कि मैं शनावर था

वहशतों में बला का था फैलाव
दश्त और घर का एक मंज़र था

एक दीवार दरमियान रही
वर्ना दोनों का एक ही घर था