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नफ़स नफ़स पे नया सोज़-ए-आगही रखना | शाही शायरी
nafas nafas pe naya soz-e-agahi rakhna

ग़ज़ल

नफ़स नफ़स पे नया सोज़-ए-आगही रखना

शायर लखनवी

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नफ़स नफ़स पे नया सोज़-ए-आगही रखना
किसी का दर्द भी हो आँख में नमी रखना

वो तिश्ना-लब हूँ कि मेरी अना का है मेआ'र
समुंदरों से भी पैमान-ए-तिश्नगी रखना

रफ़ाक़तों के तसलसुल से जी न भर जाए
जुदाइयों का भी मौसम कभी कभी रखना

वफ़ा किसी पे कोई क़र्ज़ तो नहीं होती
जो हो सके तो हमारा ख़याल भी रखना

कहीं सितम के अँधेरे न रूह को डस लें
फ़सील-ए-जिस्म पे ज़ख़्मों की रौशनी रखना

चराग़-ए-सुब्ह सही हम हमारे मस्लक में
रवा नहीं है अंधेरों से दोस्ती रखना

अजीब शख़्स है वो भी कि उस को आता है
गुरेज़ में भी अदा-ए-सुपुर्दगी रखना

तअ'ल्लुक़ात में रख़्ने भी डाल देता है
हर आदमी से उमीदें नई नई रखना

हमारा काम है हर्फ़ों को रौशनी दे कर
ख़ुद अपने ज़र्फ़ में चिंगारियाँ दबी रखना

हवा-ए-शब का नहीं ए'तिबार ऐ 'शाइर'
हज़ार नींद हो आँखें मगर खुली रखना