नफ़स की ज़द पे हर इक शोला-ए-तमन्ना है
हवा के सामने किस का चराग़ जलता है
तिरा विसाल तो किस को नसीब है लेकिन
तिरे फ़िराक़ का आलम भी किस ने देखा है
अभी हैं क़ुर्ब के कुछ और मरहले बाक़ी
कि तुझ को पा के हमें फिर तिरी तमन्ना है
ग़ज़ल
नफ़स की ज़द पे हर इक शोला-ए-तमन्ना है
ताबिश देहलवी