नए सिरे से कोई सफ़र आग़ाज़ नहीं करता
जाने क्यूँ अब दिल मेरा परवाज़ नहीं करता
कितनी बुरी आदत है मैं ख़ामोश ही रहता हूँ
जब तक मुझ से कोई सुख़न आग़ाज़ नहीं करता
कैसे ज़िंदा रहता हूँ मैं ज़हर को पी कर अब
दीवार-ओ-दर को भी तो हमराज़ नहीं करता
ताज़ा हवा के झोंके अक्सर आते रहते हैं
आख़िर क्यूँ मैं अपने दरीचे बाज़ नहीं करता
जाने कैसा राग बजाना सीख लिया दिल ने
मेरी संगत अब कोई दम-साज़ नहीं करता
अहल-ए-हुनर की आँखों में क्यूँ चुभता रहता हूँ
मैं तो अपनी बे-हुनरी पर नाज़ नहीं करता
मुझ में कुछ होगा तो दुनिया ख़ुद झुक जाएगी
मैं नेज़े पर सर अपना अफ़राज़ नहीं करता
वक़्त के सारे चक्कर हैं ये 'आलम'-जी वर्ना
यहाँ किसी को कोई नज़र-अंदाज़ नहीं करता
ग़ज़ल
नए सिरे से कोई सफ़र आग़ाज़ नहीं करता
आलम ख़ुर्शीद