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नायाब है सुकून दिल-ए-बे-क़रार में | शाही शायरी
nayab hai sukun dil-e-be-qarar mein

ग़ज़ल

नायाब है सुकून दिल-ए-बे-क़रार में

वाजिद अली शाह अख़्तर

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नायाब है सुकून दिल-ए-बे-क़रार में
बिस्मिल की है तड़प मिरे कुंज-ए-मज़ार में

गुलज़ार-ए-दहर में चमन-ए-बे-ख़िज़ाँ हूँ मैं
लाले का रंग है जिगर-ए-दाग़-दार में

काँटा मिला है गूँज का ज़ुल्फ़ों का जाल है
बाली की मछली हाथ लगी है शिकार में

नौ लाख की जभी हुई क़ीमत उसे नसीब
मोती थे मेरे आबलों के उन के हार में

अय्याम-ए-ऐश में रुख़-ए-दौलत से है अलग
अफ़्सोस पर हमारे कटे हैं बहार में

जब से उड़ी है ख़ाक-ए-अलम रश्क-ए-माहताब
इक आसमान और है मेरे ग़ुबार में

धोई हुई है दूध से तेरी ज़बान-ए-साफ़
'अख़्तर' तू ही है शाइ'रों के ए'तिबार में