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नावक-ज़नी निगाह की ऐ जान-ए-जाँ है हेच | शाही शायरी
nawak-zani nigah ki ai jaan-e-jaan hai hech

ग़ज़ल

नावक-ज़नी निगाह की ऐ जान-ए-जाँ है हेच

श्याम सुंदर लाल बर्क़

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नावक-ज़नी निगाह की ऐ जान-ए-जाँ है हेच
जब तीर ही न पार हुआ तो कमाँ है हेच

दैर-ओ-हरम भी हेच हैं और हेच बाग़-ओ-राग़
कोई जगह हो बे तिरे ऐ ला-मकाँ है हेच

फ़िरदौस हम को साया-ए-दामान-ए-यार है
दुनिया की अस्ल कुछ नहीं बाग़-ए-जिनाँ है हेच

कुछ मौत का न ग़म है न कुछ राहत-ए-हयात
कूचे में उस के मुझ को बहार-ओ-ख़िज़ाँ है हेच

चारागरी करेगा जो वो है मिज़ाज-दाँ
दर्द-ए-दरूँ का रू-ब-रू उस के बयाँ है हेच

हो जा के कू-ए-यार में ऐ मुर्ग़-ए-जाँ मुक़ीम
बाग़-ओ-बहार हेच है और आशियाँ है हेच

क़ातिल के पास जाऊँगा मैं ख़ुद ही सर-ब-कफ़
मक़्तल में उस का आना पए इम्तिहाँ है हेच

क्या तकिया उस पे कीजिए आलम है बे-सबात
हस्ती अबस हयात अबस जिस्म-ओ-जाँ है हेच

तौहीद-ए-इश्क़ में मुझे दोनों हैं एक से
मर्ग-ओ-हयात हेच है सूद-ओ-ज़ियाँ है हेच

जो उस की ख़ूबियों का सना-ख़्वाँ न हो कभी
वो हेच और उस के दहन में ज़बाँ है हेच

हूँ महव-ए-दीद आँख उठाऊँ मैं किस तरफ़
देखूँ मैं किस को जुज़ तिरे हुस्न-ए-बुताँ है हेच

जुज़ ज़िक्र-ए-यार और कहानी नहीं पसंद
सब क़िस्से मुझ को हेच हैं और क़िस्सा-ख़्वाँ है हेच

नालाँ जो हैं जहाँ में ग़म-ए-इश्क़ से तिरे
नाक़ूस उन को हेच है बांग-ए-अज़ाँ है हेच

क्या अस्ल तेग़ की तिरे अबरू के सामने
तीर-ए-मिज़ा के सामने नोक-ए-सिनाँ है हेच

हैं बंद आँखें 'बर्क़' की दिल में है तेरी याद
क्या देखे सर उठा के उसे सब जहाँ है हेच