नाव तूफ़ान में जब ज़ेर-ओ-ज़बर होती है
नाख़ुदा पर कभी मौजों पे नज़र होती है
दूर है मंज़िल-ए-मक़्सूद सफ़र है दरपेश
सोने वालों को जगा दो कि सहर होती है
और बढ़ जाती है कुछ क़ुव्वत-ए-एहसास-ए-अमल
जितनी दुश्वार मिरी राह-गुज़र होती है
घर के छुटने का असर आलम-ए-ग़ुर्बत का ख़याल
कैफ़ियत दिल की अजब वक़्त-ए-सफ़र होती है
क्या गुज़रती है गुलों पर कोई उन से पूछे
नाम गुलशन का है काँटों पे बसर होती है
अज़्म कहता है मिरा मैं भी तो देखूँ आख़िर
कौन सी है वो मुहिम जो नहीं सर होती है
कौन कहता है ग़रीब-उल-वतनी में 'साक़ी'
साथ ले-दे के फ़क़त गर्द-ए-सफ़र होती है
ग़ज़ल
नाव तूफ़ान में जब ज़ेर-ओ-ज़बर होती है
औलाद अली रिज़वी