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नाव काग़ज़ की सही कुछ तो नज़र से गुज़रे | शाही शायरी
naw kaghaz ki sahi kuchh to nazar se guzre

ग़ज़ल

नाव काग़ज़ की सही कुछ तो नज़र से गुज़रे

सादुल्लाह कलीम

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नाव काग़ज़ की सही कुछ तो नज़र से गुज़रे
उस से पहले कि ये पानी मिरे सर से गुज़रे

फिर समाअत को अता कर जरस-ए-गुल की सदा
क़ाफ़िला फिर कोई इस राहगुज़र से गुज़रे

कोई दस्तक न सदा कोई तमन्ना न तलब
हम कि दरवेश थे यूँ भी तिरे दर से गुज़रे

ग़ैरत-ए-इश्क़ तो कहती है कि अब आँख न खोल
इस के ब'अद अब न कोई और इधर से गुज़रे

मैं तो चाहूँ वो सर-ए-दश्त ठहर ही जाए
पर वो सावन की घटा जैसा है बरसे गुज़रे

हब्स की रुत में कोई ताज़ा हवा का झोंका
बाद-ओ-बाराँ के ख़ुदा मेरे भी घर से गुज़रे

मुझ को महफ़ूज़ रखा है मिरे छोटे क़द ने
जितने पत्थर इधर आए मिरे सर से गुज़रे