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नासेह न बक ज़्यादा मिरा मान ये सुख़न | शाही शायरी
naseh na bak zyaada mera man ye suKHan

ग़ज़ल

नासेह न बक ज़्यादा मिरा मान ये सुख़न

नैन सुख

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नासेह न बक ज़्यादा मिरा मान ये सुख़न
मुझ सेती छोटे इश्क़ है इम्कान ये सुख़न

तस्बीह नमाज़ रोज़ा से मुझ को नहीं है काम
मैं बुत-परस्त हूँ मिरा पहचान ये सुख़न

हर रोज़ मुझ को इश्क़ से क्यूँ रोकता है तू
आख़िर को खो रहा है तिरी जान ये सुख़न

दिलदार दिलरुबा हैं मिरे दल के मुश्तरी
मैं इन का हूँ मिरी जान ये सुख़न

इतने में मेरा यार मिरे पास आ गया
कहने लगा कि क्या है मेहरबान ये सुख़न

उस बे-हया से काहे को ख़ाली करो हो मग़्ज़
ये बेवक़ूफ़ है जो कहे आन ये सुख़न

तालिब को मा'रिफ़त के सभी चीज़ हैं मुआ'फ़
अक्सर के कह गए हैं क़द्र-दान ये सुख़न

अल-क़िस्सा हो ख़मोश किया मैं ने ये यक़ीं
जब मुँह से यार के पड़ा मुझ को कान ये सुख़न

बेहतर है सब से दोस्ती अपनी ख़ुदा की 'नयन'
फ़ेअ'ल अबस है यारी गैहान ये सुख़न