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नासेह-ए-मुश्फ़िक़ ये मश्क़-ए-ताज़ा फ़रमाने लगे | शाही शायरी
naseh-e-mushfiq ye mashq-e-taza farmane lage

ग़ज़ल

नासेह-ए-मुश्फ़िक़ ये मश्क़-ए-ताज़ा फ़रमाने लगे

नसीम देहलवी

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नासेह-ए-मुश्फ़िक़ ये मश्क़-ए-ताज़ा फ़रमाने लगे
दिन तो था अब रात को भी आ के समझाने लगे

हज़रत-ए-वाइज़ कहीं दौलत-सरा को जाइए
आते ही सामान-ए-महशर आप दिखलाने लगे

आ गए जब याद कुछ उस रब्त बाहम के मज़े
दिल भर आया दीदा-ए-तर अश्क बरसाने लगे

फिर सुबू उंडले भरे शीशे हुए लबरेज़ जाम
लग़्ज़िश-ए-पा अपनी अपनी मस्त दिखलाने लगे

बाग़बाँ हुशियार हो मुश्ताक़-ए-रुख़्सत है बहार
रंग बदला गुलिस्ताँ का फूल मुरझाने लगे

जल्वा-हा-ए-हुस्न चमके उठ गए मुँह से नक़ाब
तुर्रा-ए-गेसू के बाहम साँप लहराने लगे

हाथ उठा ऐ चारागर दरमान-ए-बे-तासीर से
जा-ए-अश्क आँखों से अब लख़्त-ए-जिगर आने लगे

ख़ूब रोए देख कर हम ज़ेवर-ए-दीवानगी
जब अहिब्बा पाँव में ज़ंजीर पहनाने लगे

भट्टियां रौशन हुईं चमकी दुकान-ए-मय-फ़रोश
रुख़्सत-ए-तौबा हुई ज़ुहहाद घबराने लगे

फ़स्ल-ए-गुल आई बढ़े जोश-ए-जुनूँ के वलवले
दी सदा ज़ंजीर ने फिर पाँव खुजलाने लगे

माने-ए-मतलब हुई वो शरम बाहम ऐ 'नसीम'
वो रुके अपनी तरफ़ हम आप शरमाने लगे