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नाम ही रह गया इक अंजुमन-आराई का | शाही शायरी
nam hi rah gaya ek anjuman-arai ka

ग़ज़ल

नाम ही रह गया इक अंजुमन-आराई का

मुग़नी तबस्सुम

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नाम ही रह गया इक अंजुमन-आराई का
छुप गया चाँद भी अब तो शब-ए-तन्हाई का

दिल से जाती नहीं ठहरे हुए क़दमों की सदा
आँख ने स्वाँग रचा रक्खा है बीनाई का

एक इक याद को आहों से जलाता जाऊँ
काम सौंपा है अजब उस ने मसीहाई का

अब न वो लम्स निगाहों का न ख़ुश्बू की सदा
दिल ने देखा था मगर ख़्वाब शनासाई का

साअत-ए-दर्द फ़रोज़ाँ है बहा लें आँसू
टूटने को है कड़ा वक़्त शकेबाई का