नाम बेहद थे मगर उन का निशाँ कोई न था
बस्तियाँ ही बस्तियाँ थीं पासबाँ कोई न था
ख़ुर्रम-ओ-शादाब चेहरे साबित-ओ-सय्यार दिल
इक ज़मीं ऐसी थी जिस का आसमाँ कोई न था
क्या बला की शाम थी सुब्हों शबों के दरमियाँ
और मैं उन मंज़िलों पर था जहाँ कोई न था
कूकती थी बाँसुरी चारों दिशाओं में 'मुनीर'
पर नगर में उस सदा का राज़-दाँ कोई न था
ग़ज़ल
नाम बेहद थे मगर उन का निशाँ कोई न था
मुनीर नियाज़ी