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नालों से मेरे कब तह-ओ-बाला जहाँ नहीं | शाही शायरी
nalon se mere kab tah-o-baala jahan nahin

ग़ज़ल

नालों से मेरे कब तह-ओ-बाला जहाँ नहीं

मुफ़्ती सदरुद्दीन आज़ुर्दा

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नालों से मेरे कब तह-ओ-बाला जहाँ नहीं
कब आसमाँ ज़मीन ओ ज़मीं आसमाँ नहीं

आँखों से देख कर तुझे सब मानना पड़ा
कहते थे जो हमेशा चुनीं है चुनाँ नहीं

उस बज़्म में नहीं कोई आगाह-ए-दर्द कब
वाँ ख़ंदा ज़ेर-ए-लब इधर अश्क-ए-निहाँ नहीं

अफ़्सुर्दा-दिल न हो दर-ए-रहमत नहीं है बंद
किस दिन खुला हुआ दर-ए-पीर-ए-मुग़ाँ नहीं

लब बंद हों तो रौज़न-ए-सीना को क्या करूँ
थमता तो मुझ से नाला-ए-आतिश-इनाँ नहीं

मिलना तिरा ये ग़ैर से हो बहर-ए-मस्लहत
हम को तो सादगी से तिरी ये गुमाँ नहीं

ऐ दिल तमाम नफ़अ है सौदा-ए-इश्क़ में
इक जान का ज़ियाँ है सो ऐसा ज़ियाँ नहीं

बे-वक़्त आए दैर में क्या शोरिशें करें
हम पीर ओ पीर-ए-मै-कदा भी नौजवाँ नहीं

कटती किसी तरह से नहीं ये शब-ए-फ़िराक़
शायद कि गर्दिश आज तुझे आसमाँ नहीं

'आज़ुर्दा' होंट तक न हिले उस के रू-ब-रू
माना कि आप सा कोई जादू-बयाँ नहीं