नाला रुकता है तो सर-गर्म-ए-जफ़ा होता है
दर्द थमता है तो बे-दर्द ख़फ़ा होता है
फिर नज़र झेंपती है आँख झुकी जाती है
देखिए देखिए फिर तीर ख़ता होता है
इश्क़ में हसरत-ए-दिल का तो निकलना कैसा
दम निकलने में भी कम-बख़्त मज़ा होता है
हाल-ए-दिल उन से न कहता था हमीं चूक गए
अब कोई बात बनाएँ भी तो क्या होता है
आह में कुछ भी असर हो तो शरर-बार कहूँ
वर्ना शो'ला भी हक़ीक़त में हवा होता है
हिज्र में नाला-ओ-फ़रियाद से बाज़ आ 'रुसवा'
ऐसी बातों से वो बेदर्द ख़फ़ा होता है
ग़ज़ल
नाला रुकता है तो सर-गर्म-ए-जफ़ा होता है
मिर्ज़ा हादी रुस्वा