नाला-ए-मौज़ूँ से मिस्रा आह का चस्पाँ हुआ
ज़ोर ये पुर-दर्द अपना मतल-ए-दीवाँ हुआ
जिस ने देखा आ के ये आईना-ख़ाना दहर का
फ़िल-हक़ीक़त बस वो अपना आप ही हैराँ हुआ
सब पे ज़ाहिर हो गई बेताबी-ए-दिल शक्ल-ए-बर्क़
वो भभूका अपनी नज़रों से जो टुक पिन्हाँ हुआ
उस के जाने से ये दिल में आए है रह रह के हाए
सब जहाँ बस्ता है इक अपना ही घर वीराँ हुआ
काश दिल से चश्म तक आने न पाता तिफ़्ल-ए-अश्क
रफ़्ता रफ़्ता अब तो ये लड़का कोई तूफ़ाँ हुआ
गर हुए वा उस के लब तो देखिए क्या गुल खिले
हो ख़फ़ा जब बे-तरह वो रौनक़-ए-बुस्ताँ हुआ
आए जो मरक़द पे मेरे सो मुकद्दर हो गए
ख़ाक हो कर भी ग़ुबार-ए-ख़ातिर-ए-याराँ हुआ
रोज़-ओ-शब रहने लगे इस घर में ये काफ़िर सनम
काबा-ए-दिल साफ़ अपना अब तो कुफ़्रिस्ताँ हुआ
जोश-ए-वहशत देखियो कोई कि हर इक ख़ार के
धज्जियाँ हो कर गले का हार ये दामाँ हुआ
अश्क-ए-रंगीं ने जो अपने कर दिया याँ फ़र्श-ए-गुल
रश्क-ए-सद-गुलशन हमें ये गोशा-ए-ज़िंदाँ हुआ
बंध गया तेरा तसव्वुर जिस की आँखों के हुज़ूर
उस को बस आलम विसाल-ओ-हिज्र का यकसाँ हुआ
यक-ब-यक तू ने ये कैसा रंग बदला ऐ फ़लक
तेरी गर्दिश से कहीं क्या सख़्त जी हलकाँ हुआ
कल तलक जो घर घर अपना था सो उस के दर पे आज
नीला पीला देख कर क्या क्या हमें दरबाँ हुआ
गरचे हर क़ालिब में 'जुरअत' सूरतें ढलती रहीं
पर बना जो दर्द का पुतला वो ही इंसाँ हुआ
ग़ज़ल
नाला-ए-मौज़ूँ से मिस्रा आह का चस्पाँ हुआ
जुरअत क़लंदर बख़्श