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नाख़ुदा भी नहीं ख़ुदा भी नहीं | शाही शायरी
naKHuda bhi nahin KHuda bhi nahin

ग़ज़ल

नाख़ुदा भी नहीं ख़ुदा भी नहीं

ख़लील राज़ी

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नाख़ुदा भी नहीं ख़ुदा भी नहीं
कोई मेरा तिरे सिवा भी नहीं

मुद्दआ' ग़ैर मुद्दआ' भी नहीं
और हसरत का पूछना भी नहीं

काहिश-ए-ग़म हरीफ़-ए-जाँ ही सही
ग़म न हो तो यहाँ मज़ा भी नहीं

शीशा-ए-दिल तो चोर है लेकिन
आसरा है कि टूटता भी नहीं

हुस्न का अक्स है हिजाब-ए-नज़र
फिर जुनूँ को तो सूझता भी नहीं

बज़्म से उन की उठ गया ख़ुद मैं
कोई पुर्सान-ए-हाल था भी नहीं

इश्क़ में पड़ के लुट गया 'राज़ी'
उन को ग़म है कि कुछ हुआ भी नहीं