नाख़ुदा भी नहीं ख़ुदा भी नहीं
कोई मेरा तिरे सिवा भी नहीं
मुद्दआ' ग़ैर मुद्दआ' भी नहीं
और हसरत का पूछना भी नहीं
काहिश-ए-ग़म हरीफ़-ए-जाँ ही सही
ग़म न हो तो यहाँ मज़ा भी नहीं
शीशा-ए-दिल तो चोर है लेकिन
आसरा है कि टूटता भी नहीं
हुस्न का अक्स है हिजाब-ए-नज़र
फिर जुनूँ को तो सूझता भी नहीं
बज़्म से उन की उठ गया ख़ुद मैं
कोई पुर्सान-ए-हाल था भी नहीं
इश्क़ में पड़ के लुट गया 'राज़ी'
उन को ग़म है कि कुछ हुआ भी नहीं
ग़ज़ल
नाख़ुदा भी नहीं ख़ुदा भी नहीं
ख़लील राज़ी