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नाफ़े है कुछ तो वो किसी फ़ैज़ान ही का है | शाही शायरी
nafe hai kuchh to wo kisi faizan hi ka hai

ग़ज़ल

नाफ़े है कुछ तो वो किसी फ़ैज़ान ही का है

ख़ावर जीलानी

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नाफ़े है कुछ तो वो किसी फ़ैज़ान ही का है
वर्ना तअल्लुक़ा मिरा नुक़सान ही का है

कुल्फ़त है सब की सब ये तवक़्क़ो के नाम की
जो भी किया धरा है ये इम्कान ही का है

माल-ओ-मनाल दस्त-गह-ए-हादसात का
रहते हैं गर बहाल तो औसान ही का है

मंज़र वो है कि जो कभी शश्दर न कर सके
हैरत ये है कि दीदा-ए-हैरान ही का है

इल्ज़ाम ख़ुद हूँ मैं यहाँ हस्ती के नाम पर
मेरा वजूद अस्ल में बोहतान ही का है

तफ़्सील में तो सिमटा हुआ ही था इंकिसार
इज्माल भी ये इज्ज़ के उनवान ही का है

आख़िर अयाँ हुआ कि मरासिम की ज़ैल में
असबाब-ए-दिल-शिकस्तगी पैमान ही का है

जब तक ब-दोश रहता है रहता हूँ गामज़न
मेरा सफ़र हक़ीक़तन सामान ही का है

उतरे वो नाव-ए-शौक़ से हो डूबना जिसे
साहिल मिज़ाज-ए-बहर का तूफ़ान ही का है

आवार्गां के वास्ते किरदार दश्त का
अंजाम-कार हीता-ए-ज़िंदान ही का है

जा-ए-पनाह उस की कोई दूसरी नहीं
'ख़ावर' कहीं का है तो बयाबान ही का है