नादाँ कहाँ तरब का सर-अंजाम और इश्क़
कुछ भी तुझे शुऊर है आराम और इश्क़
लेने न देवेंगे मुझे टुक चैन जीते जी
दुश्मन ये दोनो गर्दिश-ए-अय्याम और इश्क़
याँ ग़श हैं शौक़-ए-तौफ़ हैं यारान-ए-काबा को
ऐ नामा-बर तू कहियो ये पैग़ाम और इश्क़
क्या नाम ले के उस का पुकारा करूँ कि याँ
रखता है हर ज़बान में इक नाम और इश्क़
पूछा किसी ने क़ैस से तू है मोहम्मदी
बोला वो भर के आह कि इस्लाम और इश्क़
अस्बाब-ए-काएनात से बस हो के बे-नवा
'इंशा' ने इंतिख़ाब किया जाम और इश्क़
ग़ज़ल
नादाँ कहाँ तरब का सर-अंजाम और इश्क़
इंशा अल्लाह ख़ान